प्रयागराज न्यूज डेस्क: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने किशोरों के मानसिक विकास और उन पर पड़ते इंटरनेट व टीवी के प्रभावों को गंभीरता से लेते हुए एक नाबालिग के खिलाफ वयस्क की तरह मुकदमा चलाने के निचली अदालतों के आदेश को खारिज कर दिया है। यह मामला कौशांबी का है, जहां एक 16 वर्षीय किशोर पर सहमति से शारीरिक संबंध बनाने के मामले में वयस्क के समान मुकदमा चलाने की बात कही गई थी। हाई कोर्ट ने इस फैसले को न्यायसंगत नहीं माना और किशोर को बालक मानते हुए उसके खिलाफ मुकदमा चलाने का आदेश किशोर न्याय बोर्ड को दिया।
कोर्ट ने याची की मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि उसका बौद्धिक स्तर 66 है, जो कि ‘सीमांत’ श्रेणी में आता है और यह उसकी औसत बौद्धिक क्षमता को दर्शाता है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सिर्फ अपराध की प्रकृति को देखकर यह तय नहीं किया जा सकता कि आरोपी वयस्क की तरह सोचता है या अपराध की गंभीरता को समझता है। कोर्ट ने माना कि आरोपी को गर्भपात की दवा देना जैसे फैसले लेने की परिपक्वता नहीं थी।
कोर्ट ने किशोर न्याय अधिनियम की धारा 15 का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि किसी नाबालिग को वयस्क की तरह मुकदमे का सामना तभी कराया जा सकता है जब उसकी मानसिक, शारीरिक और सामाजिक परिपक्वता की पूरी जांच हो। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि निचली अदालतें और किशोर न्याय बोर्ड आरोपी या उसके परिजनों को आवश्यक दस्तावेज और गवाहों की जानकारी देने में विफल रहे।
अपने फैसले में हाई कोर्ट ने बंबई हाई कोर्ट के एक पुराने फैसले को उद्धृत करते हुए कहा कि इंटरनेट और टीवी किशोरों के संवेदनशील दिमाग पर गहरा और अक्सर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि ‘निर्भया’ जैसा मामला अपवाद था, और ऐसे मामलों को आम मानकर सभी किशोरों के साथ वैसा ही व्यवहार नहीं किया जा सकता जब तक उनके मानसिक और सामाजिक प्रभावों की उचित जांच न हो।