15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की खुलेआम तारीफ की। इस बात ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी और विपक्षी दलों ने आरएसएस की भूमिका को लेकर सवाल उठाना शुरू कर दिया। विपक्ष का कहना है कि आजादी के समय आरएसएस का योगदान सीमित था, फिर भी बीजेपी आरएसएस को अत्यधिक महत्ता क्यों दे रही है? यह सवाल आम जनता के बीच भी गूंजने लगे हैं कि आखिर बीजेपी किस संतुलन को कायम करने की कोशिश कर रही है?
विपक्ष की आलोचनाएं और सवाल
विपक्षी दलों का आरोप है कि बीजेपी और आरएसएस का अति समर्थन भारत की आजादी की वास्तविकता को बदलने की कोशिश है। उनका तर्क है कि स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस और महात्मा गांधी जैसे नेताओं का योगदान सर्वोपरि था, जबकि आरएसएस का योगदान तुलनात्मक रूप से सीमित रहा। विपक्ष इस बात पर भी सवाल करता है कि बीजेपी आरएसएस की छाया में रहते हुए क्या लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रभावित कर रही है?
विपक्ष के नेता यह भी कहते हैं कि बीजेपी द्वारा आरएसएस की प्रशंसा राजनीतिक तौर पर वोट बैंक बनाने की एक रणनीति है। उनके अनुसार, बीजेपी आरएसएस के बूते पर अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करना चाहती है और इसी कारण आरएसएस के प्रति अपना रुख नरम और सकारात्मक कर रही है।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन की प्रतिक्रिया
इस पूरे मामले पर वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि बहुत लोग यह गलतफहमी पालते हैं कि बीजेपी और आरएसएस के बीच कोई मनमुटाव या द्वंद्व है। उनका कहना है कि ऐसा नहीं है, बल्कि यह एक वर्चस्व का खेल है, जिसमें नेता, पर्सनालिटी और संगठनात्मक नेतृत्व को लेकर मतभेद हो सकते हैं।
राजीव रंजन ने कहा, “आरएसएस की किसी भी बात को बीजेपी झुठला नहीं सकती और न ही उसे अनदेखा कर सकती है। यह एक ऐसा संगठन है जिसके बिना बीजेपी का अस्तित्व अधूरा है। जैसा कि कहा जाता है, ‘लगा के देख जो भी हिसाब आता हो, घटा के तू मुझे गिनती में रह नहीं सकता।’ मतलब आरएसएस को घटा कर बीजेपी गिनती में नहीं रह सकती।”
उनका यह बयान इस बात की ओर इशारा करता है कि बीजेपी और आरएसएस का रिश्ता राजनीतिक और संगठनात्मक स्तर पर गहरा जुड़ा हुआ है। दोनों का एक-दूसरे पर निर्भरता का एक ऐसा ताना-बाना है जिसे तोड़ा या नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आरएसएस का इतिहास और योगदान
आरएसएस की स्थापना 1925 में हुई थी, और इसके स्थापना के समय से इसका उद्देश्य भारत में सांस्कृतिक और सामाजिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आरएसएस का योगदान अपेक्षाकृत कम रहा, खासकर महात्मा गांधी और कांग्रेस के योगदान के मुकाबले।
लेकिन आरएसएस ने स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विशेषकर जब 1980 में बीजेपी का गठन हुआ, तब से आरएसएस और बीजेपी का जुड़ाव और भी मजबूत हुआ। आरएसएस का संगठनात्मक नेटवर्क बीजेपी को चुनावी ताकत देने में अहम रहा है।
बीजेपी की रणनीति: आरएसएस के साथ संतुलन
बीजेपी और आरएसएस का रिश्ता केवल संगठनात्मक नहीं बल्कि वैचारिक भी है। बीजेपी अक्सर अपने चुनावी भाषणों और प्रचार में आरएसएस के सामाजिक कार्यों और राष्ट्रवादी विचारों को प्रमुखता देती है। इसका एक कारण यह है कि आरएसएस के स्वयंसेवक देश भर में फैले हुए हैं और वे बीजेपी के लिए जमीन तैयार करते हैं।
बीजेपी इस संतुलन को बनाए रखने की कोशिश करती है ताकि उसका जनाधार मजबूत रहे और वह राष्ट्रीय सुरक्षा, संस्कृति, और राष्ट्रवाद के मुद्दों पर आरएसएस के मजबूत समर्थन से लाभान्वित हो सके। यह रणनीति बीजेपी को चुनावों में सफल बनाने में सहायक साबित होती है।
जनता की प्रतिक्रिया
जहां बीजेपी और आरएसएस के बीच के इस रिश्ते को लेकर राजनीतिक और पत्रकारों के बीच बहस जारी है, वहीं आम जनता में भी इस विषय को लेकर कई तरह की राय बन रही है। कुछ लोग इसे देश के लिए लाभकारी मानते हैं और देखते हैं कि कैसे आरएसएस के संगठन से बीजेपी को ताकत मिलती है।
वहीं कुछ लोग इसे लोकतांत्रिक बहुलवाद और विविधता के लिए खतरा मानते हैं। उनका कहना है कि एक संगठन के इतना अधिक प्रभावी होने से राजनीतिक संतुलन बिगड़ सकता है। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि क्या देश के सभी मतों और विचारों को समान रूप से सुना और माना जाएगा?
निष्कर्ष
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 15 अगस्त को लाल किले से आरएसएस की प्रशंसा ने राजनीतिक बहस को हवा दी है। विपक्ष द्वारा उठाए गए सवाल यह दर्शाते हैं कि देश में आरएसएस की भूमिका को लेकर मतभेद और भ्रांतियां हैं। वहीं, वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन जैसे विशेषज्ञ बताते हैं कि बीजेपी और आरएसएस का रिश्ता केवल बाहरी तौर पर नहीं बल्कि अंदरूनी तौर पर भी बेहद गहरा और अनछुआ है।
बीजेपी का आरएसएस के साथ यह गठजोड़ राजनीतिक रणनीति के साथ-साथ वैचारिक मजबूती का भी प्रतीक है। हालांकि, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में संतुलन और विविधता को बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है। आने वाले दिनों में इस विषय पर राजनीतिक और सामाजिक चर्चाएं जारी रहने की संभावना है, जो भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की परिपक्वता को दर्शाती हैं।